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दूसरों के घर को रौशन करने वाले खुद अंधकार की ओर बढ़ रहे कुम्हारों को सता रही रोजी-रोटी की चिंता, मिट्टी के दीये का प्रयोग करने की अपील

दूसरों के घर को रौशन करने वाले खुद अंधकार की ओर बढ़ रहे

कुम्हारों को सता रही रोजी-रोटी की चिंता, मिट्टी के दीये का प्रयोग करने की अपील

V24x7BHARAT रिपोर्ट विश्वजीत सिन्हा

भूली:- दीपो से सजा दीपावली का त्योहार जैसे जैसे नजदीक आ रही है। ऐसे में इस बार दीपावली के मौके पर कुम्हारों को दोगुनी आय की उम्मीद है। कुम्हार त्योहार को लेकर दिन रात मिट्टी का दीया बनाने में जुटे हुए हैं। इसके साथ ही लोगों से अपील कर रहे हैं। कि इस दीपावली में मिट्टी के दीये से ही अपने घर को रोशन करें। ताकि दूसरे का घर भी रोशन हो सके। दीपावली के पर्व में अपना खास महत्व रखने वाले मिट्टी के दीये जलाने की परंपरा कम होती जा रही है। मिट्टी के दीपकों का स्थान बिजली के झालरों व मोमबत्ती ने ले ली है । आधुनिकता के क्षेत्र में भी बिजली के झालरों का प्रयोग बढ़ा है। इससे मिट्टी के बर्तन बनाने वालों की आजीविका पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। आपको बता दें। पूरी भूली क्षेत्र में कुम्हार पट्टी का हाल बदतर हो गया है।
कुम्हारों से नाता लगभग खत्म होने के कगार पर है
इसके पीछे का कारण हमारी अपनी मिट्टी से बने सामानों की जगह चायनीज और प्लास्टिक के सामान खरीदना है। आपको बता दें यह अंबेडकर नगर कुम्हार टोला के नाम पर बसा है। वहां आज सिर्फ तीन से चार पुश्तैनी परिवार ही बचें हैं,जो मिट्टी से दीये व अन्य सामान बनाने का काम कर रहे हैं। कुम्हार कह रहे हैं कि मिट्टी के काम के लिए चाक चलाते-चलाते अरसा निकल गया। लेकिन दिन ब दिन उनकी स्थिति खराब होती जा रही है।
लोगों को अब सिर्फ शगुन के पांच दिए चाहिए।
दीवाली जैसे त्यौहारों में दूसरों के घरों को रोशन करने वाले यह कुम्हार और उसका परिवार खुद धीरे-धीरे अंधकार की ओर ही बढ़ रहा है। ऐसे में अब दूसरों के घरों को दियों से रोशन करने की इच्छा उन्हें भी नहीं रही है। उनका कहना है कि लोगों को अब सिर्फ शगुन के पांच दिए चाहिए और इस मिट्टी के बर्तन को और दीया को तैयार करने से ना तो उनका परिवार फल फूल रहा है और ना ही खुद के पेट की आग बुझा पा रहे हैं। V भारत न्यूज़ ने इनकी बस्ती में जाकर देखा कि कुम्हारों की बस्ती में इनकी हालत खराब है।

मिट्टी के साथ पसीना और आंसू भी

भुवनेश्वर कुमार तथा पांडरपाला निवासी त्रिलोकी पंडित ने बताया कि मिट्टी के दीये बनाने में उन्हें और उनके परिवार को कितनी मेहनत करनी पड़ती है। 5 किमी दूर साइकिल में जाकर वे मिट्टी लेकर आते हैं। इसके बाद इसे भीगाने के बाद काफी मसला जाता है। इसके बाद सतह पर आने वाली चिकनी मिट्टी को निकाला जाता है। इसमें रेत की निश्चित मात्रा मिलाने के बाद बर्तन व दीये बनाए जाते हैं। इसके बाद भी उनकी स्थिति लगातार गिर रही है। समय के साथ वे आधुनिक भी हुए लेकिन नहीं बदली तो इनकी तकदीर। उनका कहना है कि दीपावली नजदीक आते ही पूरा परिवार दीये बनाने की तैयारी में जुट जाता है लेकिन त्यौहार करीब आने के बाद दीयों की मांग नहीं होने से सभी निराश होकर अंदर से टूटने लगते हैं। ऐसे में इसकी स्थिति धीरे-धीरे सभी कुम्हार लुप्त होते जा रहे हैं IMG_2617

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