भ्रातृ — मोह या भ्रातृ – प्रेम
स्वतंत्र लेखन :- शीर्षक रबीन्द्र कुमार रतन { BIHAR }
वैशाली जिले के एक गाँव में नह्छू और लह्छू नामक दो भाई रहते थे ।दोनों का अच्छा खासा परिवार था इल्म ,इमान और इंसानियत में दोनो एक दुसरे से बीस थे । गाँव के कुछ लोंगो को उनकी तरक्की देखी नहीं गई। अक्सर गाँव के लोग एक दुसरे के दु:ख से दु:खी
नहीं होते, जितना दुसरे के सुख से दु:खी होते हैं ।
कैसे यह इतना सुखी हैं ?
इसके सुख के कारण को ही मिटा दिया जाय ।
ऐसे लोगों को तब तक चैन होता भी नही, जब तक घर को जला कर घुरा न ताप लें । इसी योजना के सफली भूत के लिये दोनों को एक दूसरे के खिलाफ भड़काने लगे । बस क्या था ? बालू की भीत पर खड़ा यह सम्बंध,आरी डरेड,खेती- बारी का झंझट होते हुए दोनों भाईयों में मुकदमा ले कर कचहरी तक का चक्कर आरम्भ हो गया ।
दोनों भाई एक दूसरे के दुश्मन हो गये एक दूसरे के यहाँ आना- जाना ,खाना – पीना , बोल -चाल सब बन्द हो गया । काफी लम्बी लडाई चली । खून को खून नही पहचान रहा था । घर टूट रहा था, गंवार लूट रहा था । दोनों के साथ ‘घर फूटे गंवार लूटे ‘ वाली कहावत चरितार्थ हो रही थी । घर जल रहा था, बहरी ताप रहे थे । मगर भाई -भाई को ,भाई नहींं समझ रहा था ।स्तिथि बद से बदतर होती जा रही थी। मानों उन दोनों ने एक दूसरे की नींव हिलाने की कसम ले ली हो ।
अचानक बड़े भाई नह्छू की तवियत खराब हई डाक्टर- बैद्द तो रोग की ही दवा है मृत्यु की तो नहींं?
परिणामत: काल के सामने उसकी एक न चली । नह्छू वेचारा कालकल्वित हो गया । अपने पीछे अपनी विधवा के
साथ रोते -बिलखते बच्चे और अविवाहित बच्चियों को छोड़ कर चल बसा । हा! हा ! कार मच गया ।
आपसी विद्वेष की अग्नि में एक परिवार अपने भाग्य पर आठ -आठ आँसू बहाने के सिवा और कर ही क्या सकता है ।
मरने के बाद वही हुया जो अक्सर होता है मुहल्ले के लोग एक दो दिनो तक सांत्वना देते,आँसू पोछते रहे,
धीरे -धीरे सब अपने -अपने काम मे व्यस्त हो गए ।लहछू की पत्नी बहार से रोती थी मगर भीतर से प्रसन्न थी । अब तो उसका पौ बारह है । न रहा बाँस और न बजेगी बांसुरी । अब तो उसका एकछत्र राज होगा? मगर लझ्छू की स्तिथि पंख कटे गीध की सी थी ।मानो बड़े भाई की मृत्यु उसे समाज के सामने नंगा कर गया हो ।वह अपने समाज में अपने को मुँह दिखने के काविल नहीं समझता था।उसकी आत्मा उसे धिक्कारती—-।
तो वह रोता और कहता — भैया जिन्दगी के खेल में तुम जीत गये , मैं हार गया ।तुम्हारी जीत ने मेरे अभिमान को चूर-चूर कर दिया, मगर मेरा स्वाभिमान जाग गया और मैं अपने अस्तित्व को पहचान गया ।
समय गुजरने लगा । लहछू की पत्नी उसके कान दिन भर भडती रहती।लहछू उसे बिगरा और उसने अपने आत्मा की आवाज को सुना
और एक दिन उसने अपनी भाभी तथा बच्चों को बुलाकर कहा– देखो ! जब मेरा जोड़ी दार ही नहीं रहा, पिता समान बड़ा भाई ही नहीं रहा तो तुम सबों से हमारी लड़ाई कैसी? चल कर सभी मुकदमा में समझौता लगा लो और समझो कि भैया ने तुम्हें अकेला नहीं छोड़ा है । मै हूँ न! जब तक मैं जीवित हूँ तब तक तुम्हें कोई चिंता-फिक्र करने की जरुरत नही है ।
पिछ्ली बातों को भुला दो और नई जिन्दगी में हमें प्रायश्चित करने का मौका दो । न जाने स्वार्थ मे पर कर हमने भैया को कितना दुख दिया ।आज उनकी आत्मा हमें कोसती होगी ।
भ्रातृ -प्रेम और भ्रातृ – मोह का इससे आछा उदाहरण अन्यत्र कहीं नही मिलेगा ।
समाप्त……………………………..